बड़ी पुराणी कहावत है कि 'मिया बीबी राजी तो क्या करेगा काजी'
सन 2010 मे सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा उसमे यही अन्तनिर्हित था | सीधी सी बात है कि जिस समाज मे बालिक होने के बाद आपको सरकार चुनने का हक़ मिल जाता है वंहा इसी उम्र मे आपको अपने साथी और उसके साथ रहने कि शर्त चुनने का हक़ क्यू नहीं मिलना चाहिये ? सवाल बस इतना सा है | लेकिन जो लोग महिला आरक्षण पर त्योरिया चढ़ा रहा है वे जाहिर तौर पर इस पर भी नाराज होंगे ही | अब जिन्हें पार्क मे बतियाते लड़के-लड़कियों से दिक्कत है वे लिव इन पर कैसे चूप रहेंगे ?
पर ये दिक्कत है क्यू ? पहली बात तो ये कि कम से कम हिन्दू समाज में प्रेम विवाह या ऐसे रिश्ते जाती व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते है जो धर्म के ठेकेदार को मंजूर नहीं | दूसरा जिन्हें औरत बस बच्चे पैदा करने कि मशीन लगती है उन्हें उसके निर्णय लेने के किसी भी अधिकार पर एतराज होना ही है | यह निर्णय लेने वाली बात सीधे पितृसतात्मक व्यवस्था पर आघात करती है |
जो लोग इसके दूसरे पहलुओ पर बात करते हैं उनकी चिंता औरत कि यौन शुचिता को लेकर अतिशय चिंता से उभरती है | पितृसतात्मक समाज जिस यौन शुचिता को लेकर इतना संवेदनशील है उसकी कीमत औरत को हो चुकानी होती है, इसीलिए बलात्कार जैसे अपराध मे भी विक्टिम को हो सामाजिक बहिष्कार का शिकार बनना पड़ता है | इस सवाल पर भी बात सिर्फ इतनी है कि एक आधुनिक समाज मे स्त्री को अपना यौनिकता और सेक्सुअल प्रिफरेंस पर फेसले का हक़ क्यूं नहीं होना चाहिये ? जिस क्रिया के बाद पुरुष अपवित्र नहीं होता स्त्री को अपवित्र करार देने वाले आप कौन होते हैं ?
यह सच है कि बच्चो को पालने कि जिम्मेदारी मे सरकार और समाज कि कोई भागीदारी न होने और समाज के भीतर व्याप्त असुरक्षा के कारण सड़ गल जाने के बावजूद शादी एकमात्र विकल्प के रूप मे सामने आती है | लेकिन कोई अगर इसके बाहर विकल्प ढूंढना चाहे तो किसी के पेट मे दर्द क्यूं हो भाई ?
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