मंगलवार, 31 जनवरी 2012

ये जज इतना क्यों उछलता है भाई!


बड़ी पुराणी कहावत है कि 'मिया बीबी राजी तो क्या करेगा काजी'

सन 2010 मे सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा उसमे यही अन्तनिर्हित था | सीधी सी बात है कि जिस समाज मे बालिक होने के बाद आपको सरकार चुनने का हक़ मिल जाता है वंहा इसी उम्र मे आपको अपने साथी और उसके साथ रहने कि शर्त चुनने का हक़ क्यू नहीं मिलना चाहिये ? सवाल बस इतना सा है | लेकिन जो लोग महिला आरक्षण पर त्योरिया चढ़ा रहा है वे जाहिर तौर पर इस पर भी नाराज होंगे ही | अब जिन्हें पार्क मे बतियाते लड़के-लड़कियों से दिक्कत है वे लिव इन पर कैसे चूप रहेंगे ?



पर ये दिक्कत है क्यू ? पहली बात तो ये कि कम से कम हिन्दू समाज में प्रेम विवाह या ऐसे रिश्ते जाती व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते है जो धर्म के ठेकेदार को मंजूर नहीं | दूसरा जिन्हें औरत बस बच्चे पैदा करने कि मशीन लगती है उन्हें उसके निर्णय लेने के किसी भी अधिकार पर एतराज होना ही है | यह निर्णय लेने वाली बात सीधे पितृसतात्मक  व्यवस्था पर आघात करती है |

जो लोग इसके दूसरे पहलुओ पर बात करते हैं उनकी चिंता औरत कि यौन शुचिता को लेकर अतिशय चिंता से उभरती है | पितृसतात्मक समाज जिस यौन शुचिता को लेकर इतना संवेदनशील है उसकी कीमत औरत को हो चुकानी होती है, इसीलिए बलात्कार जैसे अपराध मे भी विक्टिम को हो सामाजिक बहिष्कार का शिकार बनना पड़ता है | इस सवाल पर भी बात सिर्फ इतनी है कि एक आधुनिक समाज मे स्त्री को अपना यौनिकता और सेक्सुअल प्रिफरेंस पर फेसले का हक़ क्यूं नहीं होना चाहिये ? जिस क्रिया के बाद पुरुष अपवित्र नहीं होता स्त्री को अपवित्र करार देने वाले आप कौन होते हैं ?




यह सच है कि बच्चो को पालने कि जिम्मेदारी मे सरकार और समाज कि कोई भागीदारी न होने और समाज के भीतर व्याप्त असुरक्षा के कारण सड़ गल जाने के बावजूद शादी एकमात्र विकल्प के रूप मे सामने आती है | लेकिन कोई अगर इसके बाहर विकल्प ढूंढना चाहे तो किसी के पेट मे दर्द क्यूं हो भाई ?

सोमवार, 23 जनवरी 2012

बाल अधिकारो के बीस वर्ष बाद भी स्थितियांे में कोई सुधार नहीं।


आज से बीस वर्ष पहले 1989 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित बाल-अधिकारो के कन्वेंषन के जरिए बच्चों के लिए एक बेहतर स्वास्थ्य और सुरक्षित दुनिया का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन समय के दस दषक गुजर जाने के बाद आज के बच्चों की यह दुनिया कही बदतर, असुरक्षित और बीमार दिखाई देती है।

भारत देष की हालत और भी खराब दिखाई देती है, मामले चाहे भूख, गरीबी, शोषण, रोग तथा बच्चों के साथ बरते जाने वाले दुर्व्यवहार से जुड़े हो या प्राथमिक स्वास्थ्य और षिक्षण सुविधाओं से सम्बन्ध रखने वाले तथ्यो से हो। कुल मिलाकर भारत की हालत अत्यन्त दयनीय बन पड़ी है। यूनिसंेफ की रिपोर्ट बताती है कि 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की मौत के क्रम में भारत बहुत आगे खड़ा मिलता है। भारत बच्चों की मौत का स्थान 49वां स्थान हैं। 

सर्वषिक्षा अभियान के आंकड़ो के मुताबिक देष के तकरीबन 81 लाख 50 हजार 619 बच्चें विद्यालय  शिक्षा  के दायरे से बाहर है। 41 प्रतिषत विद्यालयों में लडकियों के लिए शौचालय तक नही बने हैं, तो 49 प्रतिषत विद्यालयों में बच्चों के लिए खेल के मैदान नहीं है और विद्यालयों मे लगभग बारह लाख  शिक्षको की कमी है। ऐसे में सरकार हर बच्चे को षिक्षा का नारा बेमानी साबित हो रहा है। 

पिछले दिनों में दिल्ली में षिक्षामंत्रियों की बैठक में केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों से 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निःषुल्क एवं अनिवार्य षिक्षा का अधिकार कानून लागू करने को कहा। 

शिक्षा अधिकार कानून के अनुसार प्राथमिक विद्यालयोे में कम से कम दो शिक्षक  और 60 से अधिक छात्र होने पर तीन  शिक्षक   तैनात करने के लिए कहा गया है। सभी विद्यालयों में विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान विषय के लिए अनिवार्य रूप से एक-एक  शिक्षक   होना चाहिए, लेकिन हकीकत यह है कि देश  में भारी बेरोजगारी के बाद भी 12 लाख  शिक्षको  की कमी है। 

द स्टेट ऑव द वर्ल्डस् चिल्ड्रेन के नाम से जारी होनी वाली युनिसेफ की रपट का एक सकारात्मक तथ्य यह है कि वर्ष 1990 के बाद से 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों के बीच की औसत से कम वजन वाले बच्चांे की संख्या दुनियाभर में कम हुई है। यह एक अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। 

भारत में सरकारी आंकड़ो के हवाले से देष की 32.2 प्रतिषत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। देष में 5 वर्ष से कम आयु के 48 प्रतिषत बच्चे सामान्य से कमजोर जीवन जीने को मजबूर हो रहे है। विश्व  स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से 49 प्रतिषत भारत में पाये गये है। कमरतोड़ मंहगाई के साथ-साथ यहां एक सेकेण्ड के भीतर 5 वर्ष के नीचे का एक बच्चा कुपोषण की चपेट में आ जाता है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा  औरतों में 44.5 प्रतिषत (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुई हैं। इन 20 से 24 वर्ष की शादीशुदा  औरतों में से 22 प्रतिषत (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी है जो 18 वर्ष के पहले मां बनी है। इन कम उम्र की लड़कीयों से 73 प्रतिषत (सबसे ज्यादा) बच्चें पेदा हुये है। फिलहाल इन बच्चो में 67 प्रतिषत (आधे से बहुत ज्यादा) कुपोषण के षिकार है। 

देश की 40 प्रतिषत बस्तियों में तो विद्यालय ही नही हैं। 48 प्रतिषत बच्चे प्राथमिक विद्यालयों से दूर हैं। 6 से 14 वर्ष की कुल लड़कियों में से 50 प्रतिषत लड़कियां तो विद्यालय से ड्राप-आऊट हो जाती है। लडकियों के लिए सरकार भले ही ‘‘ सशक्तिकरण  के लिएशिक्षा’’ जैसे नारे देती रहे मगर नारे देना जितने आसान हैं लेकिन लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही मुश्किल  हो रहा है। क्योकि आखिरी जनगणना के मुताबिक भी देश की 49.46 करोड़ महिलाओं में से सिर्फ 53.67 प्रतिषत साक्षर हैं, मतलब 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर है। एशिया महाद्विप में  भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। क्राई के अनुसार भारत में 5 से 9 वर्ष की 53 फिसदी लड़कियां पढ़ना नही जानती। इनमे से ज्यादातर रोटी के चक्कर में घर य बाहर काम करती हैं, इसी तरह जहां पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं, वहीं केन्द्र सरकार के अनुसार अकेले अपने देष में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं और जिनमें से भी 12 लाख खतरनाक उद्योगो में काम कर रहे है। 

उपरोक्त तथ्यों के अनुसार आज भी हम कह सकते है कि बाल अधिकारों में इतना कुछ संघर्ष करते हुये भी बाल अधिकारों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है।


भँवर लाल कुमावत (पप्पू)