गुरुवार, 17 मार्च 2011

रोटी


उस दिन भी चूल्हा चल रहा था

और हम सब उसके आसपास बैठे थे 
माँ एक एक करके रोटी बना रही थी 
कभी छोटे की बारी आती कभी मेरी 
और कभी बाबा की 
मुन्नी तो बस माँ के साथ बैठकर हमे देख रही थी
अचानक से एक शोर आया 
शहर में फिर से दंगा भड़का था 
इस बार तो ये हमारे घर के करीब ही लगता था 
शोर सुनकर हम सब भागे 
माँ से मुन्नी को पकड़ा और बाबा ने हम दोनों को संभाला 
फिर हम सब ऐसे भागे थे 
कि एक एक करके सब खो गये थे 
जब तक होश आया 
तो मैं हिंदुस्तान में था 
माँ बाबा छोटा मुन्नी सब कही रह गये थे 
और वो भूख अब तक लगी हुई थी 
रोटी की अगली बारी मेरी ही तो थी 
न जाने कितने बरस बीत गये 
माँ बाबा छोटा मुन्नी सब 
अब एक ख्वाब सा लगते है 
लेकिन अफ़सोस तो ये है 
कि उस आग में अब तक भी 
न जाने कितने चूल्हे जलते है 
उस दिन हमारा घर जला था 
अब किसी और का जलता है 
कितने बच्चे अब भी अपनों से बिछड़ते है  
बहुत हो गया अब और न आग लगाओ 
मिलकर रहने दो सबको 
हर एक को अपनी रोटी खाने दो 
मेरी तरह वरना कितने 
उस रोटी क़ी भूख को लेकर हर रोज़ मरते रहेंगे  
माँ अब मेरी बारी है रोटी क़ी ....

भंवर लाल कुमावत (पप्पू)

कोई टिप्पणी नहीं: